बैलेंस शीट के दबाव की भरपाई के लिए बैंकों ने अपने मार्जिन में इजाफा किया है, ऐसे में अच्छे देनदार (उधार लेने वाले) बॉन्ड बाजार की ओर चले गए हैं। हालांकि इससे छोटे व मझोले देनदारों पर बैंकों की मार पड़ी है, जो उधारी के लिए बैंकों पर काफी ज्यादा निर्भर हैं। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि अगर यह प्रवृत्ति जारी रहती है (कर्ज का बाजार बॉन्ड बाजार की तरफ जाने) तो एमएसएमई पर काफी ज्यादा मार पड़ती रहेगी, जो बॉन्ड बाजार का रुख नहीं कर सकते क्योंकि इसके लिए गहरी समझ की दरकार होती है और इनका काम बैंकों की कर्ज से ही चल सकता है। यह प्रवृत्ति बैंकों के सामने भी जोखिम पैदा करती है।
दिसंबर 2016 तक औसत सावधि जमा दर और औसत आधार दर के बीच अंतर बढ़कर 2.7 फीसदी पर पहुंच गया, जो जनवरी 2015 में 1.6 फीसदी रहा था। ऐसी वित्तीय रणनीति कुछ साल तक कारगर रही है, लेकिन यह शायद अपनी सीमा तक पहुंच चुका है। समीक्षा में कहा गया है, आठ साल बाद भी प्रभावित कंपनियों की वित्तीय सेहत में सुधार के संकेत नजर नहीं आ रहे हैं या ऐसा भी नहीं हो पाया है कि उनके फंसे कर्ज की समस्या पर लगाम कसी गई हो। इसके उलट कंपनियों व बैंकों पर दबाव गहराता जा रहा है और इससे उनके निवेश व उधारी पर अच्छा खासा असर पड़ रहा है।
Source: Business Standard