असल में शेरकोट देश में पेंट ब्रश की मैन्युफैक्चरिंग का हब है और इस मार्केट के करीब 70 फीसदी हिस्से पर शेरकोट का कब्जा है।
600 यूनिट में करीब 30 हजार लोग करते हैं काम
असल में शेरकोट मुस्लिम बहुल कस्बा है और यहां पर पेंट ब्रश बनाने की करीब 600 यूनिट हैं। एक यूनिट में में आधा दर्जन से लेकर 200 लोग तक काम करते हैं। लगभग सारा काम हाथ से होता है इसलिए यह लेबर इंटेंसिव मैन्युफैक्चरिंग है। यह काम केवल शेरकोट स्थित यूनिट्स के साथ ही आसपास के गांवों के लोग अपने घरों में भी करते हैं और इसके लिए कंपनियों से कच्चा माल लेकर जाते हैं।
करीब तीस हजार लोगों को यहां इस ब्रश बनाने वाले कारोबार में काम मिला है और अधिकांश मजदूर हैं। शेरकोट की सबसे बड़ी ब्रश बनाने वाली इकाई बढ़ापुर के निवर्तमान विधायक मोहम्मद गाजी के परिवार की है।
गाजी के पिता मोहम्मद खर्शीद यहां 1976 में सहारनपुर के गंगोह कस्बे से आए थे और उन्होंने यहां पेंट ब्रश का कारोबार शुरू किया। इसके पहले भी यहां से कारोबार चल रहा था। साजन और चारमीनार ब्रांड के ब्रश बनाने वाले खुर्शीद कहते हैं कि शेरकोट ब्रश बनाने की मंडी बन गया।
यहां पर कारीगर हैं और कच्चा माल भी एक जगह मिल जाता है इसलिए यह एक बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब बन गया है। गाजी के चारमिनार और साजन ब्रांड के अलावा विल्सन, सनराइज, एवन, जैनको और टाटा समेत दर्जनों ब्रांड नाम यहां पेंट ब्रश बनाए जाते हैं।
चीन से कच्चे माल का बढ़ा है आयात
पेंट ब्रश में लकड़ी या प्लास्टिक का हैंडल होता है। यह हैंडल कानपुर और दिल्ली से आता है। एक टिन का फैरुल होता है जो ज्यादातर काशीपुर में बनता है। लेकिन सबसे अहम कच्चा माल बाल होते थे। यह बाल सूअर, बैल की पूंछ और घोड़े की पूंछ के होते हैं। बाद में सूअर के बाल चीन से आने लगे, लेकिन अब इनकी जगह नाइलॉन ने ले ली है और इससे तैयार फिलामेंट अधिकांश चीन से आयात होता है।
जहां बाल 1991 में चीन से आना शुरू हुए वहीं हालो के नाम से फिलामेंट साल 2000 से चीन से आना शुरू हुआ। इस कारोबार की खासियत यह है कि करीब 90 फीसदी काम हाथ से होता है और कारीगर ज्यादातर दलित हैं जबकि कारोबार में ज्यादा हिस्सेदारी मुस्लिम परिवारों की है।
नोटबंदी से लगा है झटका
लेकिन कारोबारी मोर्चे पर आगे बढ़ रहे इस कस्बे को नोटबंदी से बड़ा झटका लगा है। खुर्शीद कहते हैं कि नोटबंदी से 75 फीसदी यूनिट बंद हैं। कारीगरों को मजदूरी देने के लिए पैसे नहीं हैं। वहीं सप्लायरों के पेमेंट भी अटक गए हैं। कारीगर को हर रोज पैसा चाहिए, जब बैंक से कैश नहीं मिल रहा है तो उसे कैसे भुगतान होगा।
बीरथला क्षेत्र के सतीश कुमार चौहान और कमल किशोर भी इसी बात से इत्तेफाक रखते हैं। नोटबंदी ने अधिकतर कारोबार ठप कर दिए हैं क्योंकि कैश की किल्लत है। वहीं, बैंकों में लंबी लाइनों के बावजूद सिर्फ हजार दो हजार रुपए ही मिलते हैं। यहां अभी भी बैंकों के बाहर लंबी लाइनें लगती हैं और 30 दिसंबर के बाद हालात नहीं बदलने से हर रोज लोगों की नाराजगी बढ़ रही है।
इसीलिए सरकार को जल्द ही इस ओर ध्यान देने की जरूरत है, अन्यथा बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार देने वाले इस उद्योग पर भी ताला लग सकता है।
Source: Money Bhaskar