एक हफ्ते में नई नौकरी मिल गई, पुरानी कंपनी से जो मिला, वो नए घर के लिए डाउन पेमेंट के काम आ गया। मतलब यह कि निकाले जाने के कुछ हफ्तों के अंदर मेरे पास एक नौकरी थी और एक अपना घर। खटकने वाली एक ही बात थी- जिस कंपनी में काम करने से मैं परहेज करता, वहां काम करना पड़ा। हां, मेरे कुछ सहयोगी इतने लकी नहीं रहे।
साल 2009 में मंदी के बावजूद बढ़े थे नौकरी के मौके
लेकिन वो बात साल 2009 की थी। ग्लोबल मंदी के झटके अपने देश में भी लगे। लेकिन अपने देश में आर्थिक माहौल उतना खराब नहीं हुआ था। महंगाई दर को छोड़कर बाकी सारे संकेत अर्थव्यवस्था की मजबूती की ओर इशारा कर रहे थे। इसीलिए वैश्विक मंदी के काले बादल छंटने के तत्काल बाद तेजी से नौकरी के अवसर बढ़े।
सरकार के लेबर ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2009 में जुलाई से दिसंबर के बीच आठ बड़े सेक्टर्स में 10 लाख से ज्यादा रोजगार के मौके बढ़े। इन सेक्टर्स में टेक्सटाइल, लेदर, मेटल्स, ऑटोमोबाइल, जेम्स एंड ज्वैलरी, ट्रांसपोर्ट, आईटी-बीपीओ और हैंडलूम शामिल हैं।
छंटनी के सीजन में ‘द लॉस्ट जेनरेशन’ को नहीं मिल रही हैं नौकरियां
दुर्भाग्य से जॉब मार्केट में ऐसी तेजी उसके बाद फिर कभी नहीं दिखी। जनवरी 2012 के बाद किसी क्वार्टर में 2 लाख से ज्यादा कभी भी नौकरी के मौके नहीं बढ़े। और पिछले ढाई साल में तो इन आठ सेक्टर्स में सिर्फ 9.74 लाख लोगों को ही नौकरी मिली।
ऐसा तब हो रहा है, जब देश में हर महीने 10 लाख लोग जॉब मांगने वालों की लाइन में खड़े हो जाते हैं। क्या यही वजह है कि 2010 से 2030 के बीच जॉब मार्केट में कदम रखने वालों को ‘लॉस्ट जेनरेशन’ कहा जाने लगा है। मतलब कि हर महीने बेरोजगारों की एक तगड़ी फौज खड़ी हो रही है।
ऐसा नहीं है कि इन आठ सेक्टर्स के अलावा लोगों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। लेकिन इन बड़े सेक्टर्स में रोजगार के क्या हालात हैं, इससे अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा का अंदाजा लगता है। आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था से नौकरियां गायब हो गई हैं।
ऐसे हालात में छंटनी की खबर डराती है। और उस तरह की रिपोर्ट तो और भी, जिसमें कहा जा रहा है कि देश के कभी सबसे ज्यादा चमकने वाले सेक्टर्स जैसे टेलीकॉम, आईटी और बैंकिंग और फाइनेंशियल सर्विसेज में अगले कुछ महीनों में 1.5 लाख लोगों की छंटनी हो सकती है। भयावह हैं ये बातें।
ई-कॉमर्स कंपनियों का बुरा हाल है। उबर-ओला जैसी कंपनियां कराह रही हैं। अच्छे आइडिया वाली स्टार्टअप कंपनियों में जो तेजी दिख रही थी, वो थमने लगी है। इसके बीच नोटबंदी के फैसले ने रोजगार देने वाली एसएसएमई सेक्टर की कमर ही तोड़ दी. ऐसे में छंटनी के मारों को नौकरियां कहां मिलेंगी?
नौकरियां कम होती हैं, लेकिन इसे ठीक करने का एजेंडा किसी के पास नहीं
आश्चर्य की बात है कि रोजगार के मौकों पर राजनीतिक पार्टियों का रुख बड़ा उदासीन सा है। वादे तो होते हैं, लेकिन फॉलोअप एक्शन नदारद। उन्हें शायद लगता होगा कि क्या फर्क पड़ता है? वोट तो जाति और धर्म के नाम पर ही होना है। बाकी सब ऑटो पायलट पर चलता रहेगा और किसी की सेहत पर कोई असर नहीं होगा।
लेकिन शायद वो गलती कर रहे हैं। साल 2004 से साल 2009 के बीच तेजी से विकास की वजह से जो फील-गुड का माहौल हुआ था, उसका कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए को खूब फायदा हुआ था। देश की 201 शहरी लोकसभा सीटों में से साल 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए को 115 पर जीत मिली थी।
लेकिन 2010 के बाद से जैसे ही नौकरियों के लाले पड़ने लगे, यूपीए की लोकप्रियता का ग्राफ गिरने लगा। साल 2009 से 2012 के बीच शहरी निकायों के चुनाव में कांग्रेस महज 22 फीसदी सीटें जीत पाई, जो 2009 लोकसभा चुनाव के 60 के स्ट्राइक रेट से काफी कम था।
इसीलिए रोजगार के घटते मौके में पार्टियों के लिए साफ संदेश छिपा है- हालात नहीं सुधरे, तो राजनीतिक रुझान में तेजी से होने वाले बदलाव के लिए तैयार रहिए।
(By: मयंक मिश्रा)
Source: The Quint