इस फैसले से वित्त मंत्री ने बड़ी होशियारी से एक तीर से कई शिकार कर लिए हैं. उन्होंने जीएसटी की वजह से होने वाले संभावित आर्थिक-राजनीतिक नुकसान के सांप को मार दिया है और लाठी भी बचा ली है.
इस मसौदे पर केंद्र सरकार ने राज्यों की मांगों को लगभग तस का जस मान ली है. जिस पर वे शुरू में अड़े हुए थे. इससे जाहिर होता है कि असल में केंद्र सरकार की मंशा जीएसटी को लागू करने की नहीं थी.
आगामी केंद्रीय बजट पांच राज्य विधानसभा चुनावों के ऐन पहले 1 फरवरी को संसद में पेश किया जाएगा. इसमें कई लोक लुभावन घोषणाओं की तैयारी मोदी सरकार की है, ताकि नोटबंदी के फैसले से उपजे आक्रोश को दरकिनार किया जा सके. अनेक मीडिया रिपोर्टों के अनुसार पीएमओ बजट के प्रस्तावों की लगातार मीमांसा कर रहा है.
यदि दिसंबर में इन विवादित मुद्दों पर सहमति बन जाती, तो सरकार विकल्पहीन हो जाती और 1 अप्रैल से जीएसटी लागू करना उसकी नियति बन जाती. इसके अपने बड़े खतरे थे. पहला जीएसटी की घोषणा से बजट की लोक लुभावन प्रस्तावों की गूंज कम हो जाती, क्योंकि जीएसटी को पिछले कई दशकों का सबसे बड़ा आर्थिक सुधार माना जाता है.
दूसरा जीएसटी में सर्विस टैक्स की मानक दर 18 फीसदी है, जो अभी 15 फीसदी है. यानी सर्विस टैक्स 3 फीसदी ज्यादा हो जाएगी. पान मसाला, तंबाकू, सिगरेट, कोका कोला, पेप्सी जैसे पेय पदार्थों पर टैक्स 40 फीसदी हो सकता है.
पांच राज्यों के चुनाव हर बड़े राजनीतिक दल के लिए अस्तित्व की लड़ाई है. खास कर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव. इस चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी समेत कई बड़े नेताओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है. अब बड़ी चतुराई से इन जोखिमों पर मोदी सरकार ने पानी डाल दिया है.
अब नहीं होगा फंड का टोटा
जीएसटी के जुलाई से लागू होने से केंद्र सरकार के टैक्स कलेक्शन में कोई भारी कमी नहीं आयेगी. हो सकता है अब वित्त मंत्री आगामी बजट में उत्पाद शुल्क, सर्विस टैक्स की दरों से ज्यादा छेड़छाड़ न करें. क्योंकि केंद्र सरकार के टैक्स रेवेन्यू में पर्याप्त बढ़ोतरी की उम्मीद अब बढ़ गई है.
मनभावन, लोक लुभावन घोषणाओं और इनकम टैक्स में छूट के लिये भी अब वित्त मंत्री के पास फंड का कोई टोटा नहीं रहेगा. हां, सितंबर तक जीएसटी के टल जाने से जरूर वित्त मंत्री को पर्याप्त फंड जुटाने में पसीने छूट जाते.
वित्त मंत्री ने बड़ी होशियारी से जीएसटी को टाल भी दिया और संभावित आर्थिक-राजनीतिक नुकसान से अपनी सरकार और पार्टी को बचा भी लिया.
क्या है दोहरे नियंत्रण का मुद्दा
जीएसटी को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों की बीच एक सबसे बड़े अहम मुद्दा था कि इस कर के प्रशासनिक अधिकारों का बंटवारा क्या और कैसे हो.
राज्यों की शुरू से यह मांग थी कि डेढ़ करोड़ रुपए सालाना कारोबार करने वाली सभी इकाइयों पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण हो और डेढ़ करोड़ रुपए से अधिक सालाना कारोबार करने वाली इकाइयों पर केंद्र और राज्य सरकार का बराबर नियंत्रण यानी 50-50 हो.
तटीय राज्यों की मांग थी कि समुद्री कारोबार के 12 नॉटिकल मील (समुद्र में दूरी मापने की इकाई) तक टैक्स के प्रशासनिक अधिकार राज्य को मिलने चाहिए. पर केंद्र सरकार अपना यह अधिकार छोड़ने को राजी नहीं थी.
लेकिन अब केंद्र सरकार ने राज्यों की मांगों को लगभग जस का तस मान लिया है. वित्त मंत्री अरुण जेटली के अनुसार अब डेढ़ करोड रुपए सालाना कारोबार करने वाली 90 फीसदी इकाइयों के जीएसटी करदाताओं पर राज्य का नियंत्रण रहेगा. बाकी 10 फीसदी इकाइयों पर केंद्र का.
डेढ़ करोड़ रुपए सालाना से अधिक कारोबार करने वाली इकाइयों पर केंद्र और राज्य सरकार बराबर का नियंत्रण रखेगी. यानी 50-50. इसके अलावा तटीय राज्यों की 12 नॉटिकल मील तक टैक्स वसूली की मांग को केंद्र ने अब मान लिया है, जो अप्रत्याशित है. यानी कुल मिलाकर केंद्र ने राज्यों की माँगों के आगे आत्म समर्पण कर दिया है.
जीएसटी है शुरू से ही राजनीतिक अखाड़ेबाजी का शिकार
वैसे कर सुधार की सबसे अहम योजना जीएसटी को शुरू से ही बीजेपी और कांग्रेस बार-बार राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल करती रही है. इससे भी इस कर व्यवस्था को लागू होने में अनावश्यक रूप से भारी विलंब हुआ है.
इस टैक्स का विचार सबसे पहले 2000 में सामने आया था. 2008 में इस टैक्स की अवधारणा पर काम शुरू हो गया. कांग्रेस अपने शासन के दौरान ही इसे लागू करना चाहती थी. इसे लागू करने की तारीख का ऐलान तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने कर दिया था.
लेकिन बीजेपी ने हर स्तर पर इसमें अड़ंगा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इस कर का विरोध करने में नरेंद्र मोदी सबसे आगे थे. तब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे. 2014 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन होने से इन दोनों पार्टियों के पाले बदल गये.
बीजेपी केंद्र की सत्ता में आ गयी और कांग्रेस विपक्ष में. कांग्रेस जीएसटी की 18 फीसदी की मानक दर और उसे बिल में अधिसूचित करने की मांग पर अड़ गई. इस विवाद में भी अच्छा-खासा समय खप गया. बीजेपी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस इस टैक्स पर फिजूल की राजनीति कर रही है.
छोटे कारोबारियों पर दोहरी मार
जीएसटी लागू होने से असंगठित क्षेत्र के छोटे कारोबारियों का आर्थिक बोझ और बढ़ जायेगा. इनकी नोटबंदी से आर्थिक कमर पहले ही टूट चुकी है. सूक्ष्म, लघु और मध्यम औद्योगिक इकाइयों की प्रतिनिधि संस्था इंडिया मैन्यूफैक्चरिंग ऑर्गनाइजेशन का कहना है कि नोटबंदी के कारण अब तक इस क्षेत्र में 35 फीसदी लोग रोजगार से हाथ धो बैठे हैं.
इन औद्योगिक इकाइयों की आमदनी में 50 फीसदी की गिरावट आयी है. विख्यात कंपनी क्रेडिट सूइज की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश की 1.85 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 50 फीसदी से ज्यादा है. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार देश की कुल श्रम शक्ति का 90 फीसदी हिस्सा इस क्षेत्र से अपनी रोजीरोटी चलाता है.
जीएसटी के लागू होने से कारोबार की लागत का बढ़ना तय है क्योंकि इस कर में रिटर्न भरने का तामझाम बहुत अधिक है, वह भी ऑनलाइन. कारोबारी संगठनों के अनुसार अभी उन्हें पांच रिटर्न सालाना भरने पडते हैं. लेकिन अब इनकी संख्या बढ कर 37 हो जायेगी.
यह काम विशेषज्ञों की सहायता के बिना पूरा करना मुश्किल है, जो बड़ी फीस वसूलते हैं. छोटे कारोबारी जिनका सालाना कारोबार 10-15 लाख रुपए से ज्यादा है, अब वे भी बढ़ी संख्या में इस कर के दायरे में आ जाएंगे.
ऐसे कारोबारियों के पास ऑनलाइन रिटर्न दाखिल करने का कोई ढांचा नहीं है न कंप्यूटर,न सीए नहीं अकाउंटेंट. मोटा अनुमान है कि इन रिटर्नों के दाखिल करने से छोटे कारोबारियों का खर्च 20-25 हजार रुपए सालाना बढ़ जाएगा.
(By: Rajesh Raparia)
Source: Firstpost