चुनावी सभाओं में 2013-14 में नरेंद्र मोदी ने सालाना एक करोड़ रोजगार देने का वायदा देश के युवाओं से किया था। तब करोड़ों युवा मोदी के साथ खड़े हो गए थे और उन्हें लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत दिलाया था।
लेकिन रोजगार सृजन के अवसर पिछले सात सालों के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए हैं। मनमोहन सिंह के 10 सालों के राज में 2012 और 2013 आर्थिक दृष्टि से सबसे ज्यादा खराब थे। इस समय विकास दर गिर कर 5.6 फीसदी तक पहुंच गई थी।
लेकिन मोदी सरकार अपने शुरुआती दो साल के राज में मनमोहन सिंह के इन दो सबसे खराब सालों में सृजित रोजगार अवसरों से भी पिछड़ गई है।
देश के राष्ट्रपति ने एक भाषण में कहा कि 2015 में 1 लाख 35 हजार रोजगार सृजित हुए जो पिछले सात सालों में सबसे कम हैं। उन्होंने चेताया भी था कि युवाओं में व्याप्त बैचेनी और कुंठा गहरे असंतोष और उथल-पुथल को जन्म दे सकती है। उन्होंने मोदी सरकार को सलाह भी दी कि रोजगार सृजन को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
राष्ट्रपति ने रोजगार के जिस आंकड़े का उल्लेख किया, वह श्रम ब्यूरो के हालिया सर्वेक्षण के हैं। इस सर्वेक्षण के अनुसार 2015 की अंतिम तिमाही में (अक्टूबर-दिसंबर) में रोजगार बढ़ाने के बजाय घट गया और 20,000 नौकरियां कम हो गईं।
इस सर्वेक्षण को अर्थव्यवस्था के आठ सेक्टरों में किया जाता है। इस सर्वे के अनुसार 2015 में इन सेक्टरों में एक लाख 35 हजार नई नौकरियां पैदा हुईं जो पिछले सात साल सालों (2009 से) में सबसे कम हैं।
भारी भरकम सरकारी कोशिशें नाकाम रहीं
मोदी सरकार ने रोजगार बढ़ाने को लेकर अनेक नीतियां और योजनाएं बनाई। लाल किले की प्राचीर से उन्होंने ‘मेक इन इंडिया’ का जो समां बांधा, उससे लगा कि अब रोजगार हर युवा के दरवाजे पर दस्तक देगा।
‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम में 25 उद्योग चिह्नित किए गए। इन में से तीन उद्योगों को छोड़ कर बाकी क्षेत्रों में 100 फीसदी निवेश के रास्ते खोल दिए गए। अरबों-खरबों रुपयों के विदेशी निवेश और लाखों नई नौकरियों का सपना दिखाया गया।
इसके बाद बड़ी धूमधाम से रोजगार मूलक कई योजनाएं जैसे मुद्रा योजना (माइक्रो यूनिट डेवलोपमेंट री-फाइनेंस एजेंसी), स्टैंड-अप योजना, स्टार्ट अप योजना, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया आदि शुरू की गईं।इनमें भी रोजगार के लंबे-चौड़े वायदे किए गए।
मुद्रा योजना की उपलब्धियों का भारी बखान खुद प्रधानमंत्री मोदी भी कर चुके हैं और बताया कि इससे अनसूचित जाति और जनजाति के 3.50 करोड़ लोगों को फायदा हुआ है।
लेकिन इससे गांवों से न तो श्रमिकों का पलायन रोका और न ही कम हुआ। राष्ट्रपति के भाषण में इस जमीनी सच्चाई की तल्खी को साफ देखा जा सकता है।
आंकड़ों से ज्यादा भयावह है रोजगार की तस्वीर
सरकारी आंकड़ों में रोजगार की भयावह स्थिति का अंदाजा नहीं लग सकता है। देश में हर साल तकरीबन एक करोड़ युवा रोजगार की कतार में जुड़ जाते हैं। लेकिन सरकार आंकड़ों के हिसाब कुछ लाख युवाओं को ही नौकरियां मिल पाती हैं।
पिछले दिनों मीडिया की दो खबरों से बेरोजगारी की भयावह तस्वीर देख कर किसी के भी रौंगटे खड़े हो जायेंगे। छत्तीसगढ़ सरकार के विभाग ने 30 चपरासियों की भर्ती के लिए आवेदन मांगे। पात्रता थी महज पांचवीं पास।
14 हजार पगार वाली इन नौकरियों के लिए आवेदन आये 75 हजार जिनमें हजारों की संख्या में आवेदनकर्ता थे इंजीनियर और एमबीए। इससे भी ज्यादा दर्दनाक खबर उत्तर प्रदेश से आई। 2015 में उत्तर प्रदेश सचिवालय ने 368 चपरासियों की भर्ती के लिए आवेदन मांगे। कुल आवेदन आये 23 लाख।
पूरा कॉरपोरेट सेक्टर सालाना इतनी नौकरी नहीं दे पाता है। इनमें डेढ लाख आवेदन कर्ता ग्रेजुएट थे और तकरीबन 25 हजार पोस्ट ग्रेजुएट। इनमें 250 आवेदनकर्ता पीएचडी थे। इस नौकरी की पात्रता थी पांचवीं पास और साथ में साइकिल चलाने की शर्त।
नोटबंदी से रोजगार में भारी कमी का अंदेशा
नोटबंदी के बाद से जो खबरें हवा में तैर रही हैं, उनसे मौजूदा रोजगार और आय में भारी कमी का अंदेशा गहरा गया है। नोटबंदी से इनफार्मल सेक्टर (असंगठित क्षेत्र ) गर्त में चला गया है।
एक रिपोर्ट के अनुसार देश के कुल रोजगार में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 84.7% है। 4.5% हिस्सेदारी सरकारी उपक्रमों की और कॉरपोरेट सेक्टर की हिस्सेदारी महज 2.5% है। शेष 8.4% रोजगार कुटीर उद्योग क्षेत्र से आता है. जहां पांच से अधिक लोग काम करते हैं।
विख्यात वित्त कंपनी क्रेडिट सूईस की 16 जुलाई की रिपोर्ट के अनुसार देश की 1.85 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 50% से ज्यादा है।
पानवाला, चायवाला, प्रेसवाला, पंक्चरवाला, बिजलीवाला, पानीवाला, सिगरेट खोखे, आटा-चक्की, कुरियरवाला, टैक्सी ड्राइवर, परचून व दवा की दुकानें, खुदरा व्यापार, अधिकांश सूक्ष्म, लघु और मध्यम औद्योगिक इकाइयों (MSMEs) आदि असंगठित क्षेत्र में ही आते हैं।
देश की कुल श्रमशक्ति का 90 फीसदी हिस्सा इस क्षेत्र से अपनी रोजीरोटी चलाता है। इनमें 80 फीसदी दिहाड़ी पर काम करते हैं और 79 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन बसर करते हैं।
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग इकाइयों की सबसे बड़ी प्रतिनिधि संस्था ‘इंडिया मैन्यूफैक्चरिंग ऑर्गनाइजेशन’ का कहना है कि नोटबंदी के कारण अब तक इस क्षेत्र में 35 फीसदी लोग रोजगार से हाथ धो बैठे हैं. इन इकाइयों की आमदनी में 50 फीसदी की गिरावट आई है।
इस संस्था का आकलन है कि मार्च,16 तक 60 फीसदी मजदूर बेरोजगार हो जाएंगे और आमदनी में गिरावट 55 फीसदी तक पहुंच जायेगी। तीन लाख से अधिक छोटी औद्योगिक इकाइयां इस संगठन की सदस्य हैं।
विशेष उद्योग के लिए मशहूर कई औद्योगिक शहरों से लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूरों के वापस जाने की खबरों से अखबार भरे पड़े हैं। अहमदाबाद के कपड़ा बाजार, सूरत पॉवरलूम, कपड़ों के निर्यात के लिए मशहूर तिरूपुर, सुहाग नगरी फिरोजाबाद से प्रवासी मजदूरों के लौटने का क्रम जारी है।
बड़े शहरों मुबंई, बंगलुरु, गुरुग्राम आदि से निर्माण मजदूर काफी पहले लौट चुके हैं. खेतिहर मजदूरों के बारे में भी ऐसी ही खबरें हैं।
सम्मोहन से आना पड़ेगा बाहर
2005 से उच्च विकास दर से रोजगार की विकराल समस्या के समाधान का ही प्रयास हर सरकार ने किया है।इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस दरमियान विकास दर 9 फीसदी तक गई, लेकिन यह अपेक्षित रोजगार देने में विफल रही।
सरकारी योजनाकार साल 2009, 10 और 12 को रोजगार सृजन का स्वर्णिम काल मानते हैं. इन सालों में औसत 8.5 लाख रोजगारों का सृजन हुआ। लेकिन यह उपलब्धि भी गैर कृषि क्षेत्र में एक करोड़ रोजगार देने के लक्ष्य से कोसों दूर है।
अब यह साबित हो चुका है कि उच्च विकास दर स्वयं में रोजगार समस्या का हल नहीं है। फिर भी बजट में हर वित्त मंत्री का लक्ष्य विकास दर को बढ़ाना होता है।
इसके हिसाब से ही बजट में तमाम प्रोत्साहन, छूटें, राहतें दी जाती हैं। जिनका अधिकांश लाभ संगठित क्षेत्र विशेषकर कॉरपोरेट सेक्टर ले उड़ता है। साथ ही यही सेक्टर सबसे कम रोजगार के नए अवसर मुहैया कराता है।
बजट से है चमत्कार की आस
बजट में ऐसा कोई खाना नहीं होता है जिसमें वित्त मंत्री रोजगार सृजन के लक्ष्य को अंकित कर सकें। लेकिन वित्त मंत्री अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को तमाम कारगर प्रोत्साहन दे कर सुस्त रोजगार सृजन को अपेक्षित रफ्तार दे सकते हैं।
इसके लिए उन्हें पूंजी केंद्रित उद्योगों से रोजगार निर्भरता छोड़नी होगी। आईटी सेक्टर, वित्त क्षेत्र या अति आधुनिक तकनीकी संयंत्रों के तेज विकास के जरिए सालाना एक करोड़ रोजगार सृजन का लक्ष्य असंभव है।
रोजगार मूलक टेक्सटाइल सेक्टर, पर्यटन, चमड़ा, ट्रांसपोर्ट, हस्तशिल्प, पॉवर लूम, आभूषण के छोटे कारोबारी इकाइयों को प्रोत्साहन दे कर ही रोजगार सृजन में तेजी आ सकती है।
टेक्सटाइल उद्योग कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार देता है, पर इसमें असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी ज्यादा है। पर्यटन उद्योग भी पांच करोड़ लोगों को रोजगार देता है।
असंगठित क्षेत्र को दोबारा से अपने पैरों पर खड़े किये बिना एक करोड़ रोजगार का जादुई आंकड़ा पाना असंभव है। नोटबंदी से यह क्षेत्र बर्बाद हो गया है। इसके लिए जरूरी है कि इस क्षेत्र को ज्यादा से ज्यादा कम ब्याज दर पर कर्ज, तकनीकी और प्रबंधकीय सहायता के पुख्ता इंतजाम बजट में वित्त मंत्री को करने होंगे।
रोजगार को बजट में वित्त मंत्री के चमत्कारी स्पर्श की दरकार है। केवल नुमाइशी घोषणाओं और लिफाफिया वेब पोर्टल से एक करोड़ रोजगार देने का प्रधानमंत्री का वायदा पूरा नहीं हो पायेगा. पिछले ढाई सालों में ऐसे प्रयासों का नतीजा सबके सामने हैं।